हरेन्द्र दुबे
गोरखपुर, 20 ,दिसम्बर ,2024:
गोरखपुर की शांत धरती, जहाँ खेतों की हरियाली और गाँव की मिट्टी में बसे सुकून के किस्से मिलते हैं….
वहीं दूसरी ओर कोनी गाँव के ऊपर एक काला बादल मंडरा रहा है। कुशीनगर रोड पर माडापार जीरो प्वाइंट के पास, बदलाव की हवाएँ चल रही हैं – पर ये वो बदलाव नहीं जो उम्मीदें लेकर आते हैं।
पुलिस प्रशिक्षण केंद्र और पीएसी महिला बटालियन का निर्माण शुरू हो चुका है, लेकिन यह विकास 70 से अधिक परिवारों के लिए खुशी नहीं, आँसू लेकर आया है। उनके पुश्तैनी घर, जहाँ पीढ़ियों ने जीवन बिताया है, अब विनाश के कगार पर खड़े हैं। घाव अभी ताज़े हैं जब साठ परिवारों को उनकी जमीन से “सीलिंग लैंड” कहकर बेदखल कर दिया गया।
“हमारे पूर्वजों ने इस मिट्टी को सींचा है,” पूर्व प्रधान प्रेमचंद चौरसिया कहते हैं, उनकी आवाज में दर्द है। “अब इसे सीलिंग प्रभावित जमीन बता रहे हैं। हाईकोर्ट में मामला लंबित है, फिर भी हमें निकालना चाहते हैं।” उनके शब्द पूरी बस्ती की भावनाओं को बयां करते हैं।

किसान दिग्विजय सिंह, जिनका परिवार इसके अलावा कोई और घर नहीं जानता, विनती करते हैं, “बस हाईकोर्ट का फैसला आने तक हमें रहने दिया जाए।” उनके बगल में खड़े विजय सिंह उन दो एकड़ जमीन की ओर इशारा करते हैं जहाँ प्रशिक्षण केंद्र बन रहा है। “न मुआवजा मिला, न कोई आश्वासन – हम जाएं तो कहाँ जाएं?” उनका सवाल सर्द हवा में कहीं गुम हो जाता है।
एक और निवासी अमरनाथ गुप्ता बताते हैं, “पहले फोरलेन रिंग रोड में जमीन गई, अब जो बचा है वो सीलिंग प्रभावित हो रहा है। हमारा मकान भी अधिग्रहण में आ गया है।” एक और निवासी देवेंद्र सिंह कहते हैं: “सत्तर साल से इस जमीन पर काबिज हैं। इतनी बार जमीन ट्रांसफर हुई, तब कहीं कोई बात नहीं हुई। अब जमीन सीलिंग की बताकर लेना गलत है। मुआवजा नहीं चाहिए, हमें हमारी जमीन चाहिए।”
हाईकोर्ट में मामला लंबित होने के बावजूद, निर्माण कार्य जारी है। ग्रामीणों ने हर दरवाजा खटखटाया है – जिला से लेकर तहसील और मंडल स्तर तक – लेकिन उनकी गुहार खाली गलियारों में गूंजती रह गई है। प्रशासन की चुप्पी बहुत कुछ कह जाती है, ऐसा ग्रामीणों का कहना है।

जैसे-जैसे कोनी गाँव पर शाम ढलती है, परिवार अपने घरों में इकट्ठा होते हैं, अनिश्चित डर कि ये दीवारें कल भी उन्हें पनाह देंगी या नहीं। उनकी रातें अब डर और चिंता में कटती हैं, उनकी एकमात्र प्रार्थना है – उन्हें तब तक अपने घरों में रहने दिया जाए जब तक हाईकोर्ट उनकी कहानी नहीं सुन लेता।
यह सिर्फ जमीन का मामला नहीं रह गया है। यह जड़ों के उखड़ने की पीड़ा है, यह उन घरों की कहानी है जिनमें पीढ़ियों की यादें बसी हैं, यह एक समुदाय के अस्तित्व का सवाल है जहाँ वे हमेशा से रहे हैं। जैसे-जैसे हर सुबह निर्माण वाहन आते हैं, सत्तर परिवार चिंता से देखते हैं, इस उम्मीद में कि न्याय उनका आशियाना उजड़ने से पहले मिल जाए।
