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100 साल, 8 गोल्ड और अनगिनत जज्बे… जानिए हॉकी कैसे बनी भारत की पहचान

भारत की हॉकी की कहानी सिर्फ खेल की नहीं, बल्कि देश के गर्व और जज्बे की दास्तान है। ध्यानचंद से लेकर हरमनप्रीत तक, यह सफर बताता है कि कैसे एक खेल हमारी पहचान और संस्कृति का प्रतीक बन गया।

लखनऊ, 8 नवंबर 2025:

भारत की धरती पर जब खेलों की बात होती है, तो सबसे पहले जिस खेल का नाम ज़ुबान पर आता है, वह है हॉकी। आज भारतीय हॉकी अपने 100 गौरवशाली साल मना रही है। लेकिन यह सफर सिर्फ मैदान का नहीं, बल्कि जुनून, जज़्बे और देश की पहचान का भी है।

कहानी की शुरुआत 16वीं सदी से होती है, जब स्कॉटलैंड में हॉकी जैसा खेल खेला जाता था। 18वीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्य ने इसे नया रूप दिया और जब वे भारत आए, तो साथ में यह खेल भी लाए। 1850 के दशक में भारतीय सैनिकों ने हॉकी खेलना शुरू किया और देखते ही देखते यह खेल लोगों के दिलों में बस गया। 1855 में कोलकाता में पहला हॉकी क्लब बना और यहीं से शुरू हुई भारत की स्वर्णिम यात्रा।

धीरे-धीरे यह खेल कोलकाता से मुंबई और पंजाब तक फैल गया। बीटन कप और आगा खान टूर्नामेंट जैसे मुकाबलों ने युवाओं में हॉकी का जोश भर दिया। 1925 में इंडियन हॉकी फेडरेशन बनी और इसके साथ शुरू हुआ एक नया अध्याय।

ध्यानचंद का दौर: जब स्टिक पर चलता था जादू

1926 में भारतीय टीम पहली बार न्यूजीलैंड दौरे पर गई और 21 में से 18 मैच जीतकर लौटी। इसी दौरे में उभरे महान खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद, जिनकी स्टिक पर गेंद ऐसे चलती थी जैसे कोई जादू हो। 1928 एम्स्टर्डम ओलंपिक में भारत ने अपने पहले ही प्रयास में स्वर्ण पदक जीत लिया। भारत ने 29 गोल दागे और एक भी गोल नहीं खाया। इनमें से 14 गोल अकेले ध्यानचंद ने किए।

इसके बाद तो भारत हॉकी का बादशाह बन गया। 1932 और 1936 ओलंपिक में भी स्वर्ण पदक जीते। 1936 में बर्लिन में ध्यानचंद ने हिटलर के सामने भारत को विजेता बनाया। जब हिटलर ने पूछा कि तुम्हारी स्टिक में क्या है, तो ध्यानचंद ने कहा, “सर, बस भारतीय दिल की लगन।”

आज़ादी के बाद का स्वर्ण युग

1947 में देश आजाद हुआ और 1948 में लंदन ओलंपिक में स्वतंत्र भारत ने पहली बार हिस्सा लिया। कप्तान बलबीर सिंह सीनियर की अगुवाई में भारत ने लगातार तीन ओलंपिक (1948, 1952, 1956) में स्वर्ण जीता। यह जीत सिर्फ पदक नहीं, बल्कि आत्मसम्मान की वापसी थी।

1960 में पाकिस्तान से हारने के बाद 1964 में भारत ने टोक्यो ओलंपिक में फिर से स्वर्ण जीतकर साबित किया कि भारत की हॉकी अब भी दमदार है।

महिला हॉकी का आगाज़ और बदलाव का दौर

1970 का दशक बदलाव लेकर आया। 1971 में पहला हॉकी वर्ल्ड कप हुआ, जिसमें भारत तीसरे स्थान पर रहा। 1975 में कुआलालंपुर में भारत ने पहला और अब तक का एकमात्र हॉकी वर्ल्ड कप जीता। 1974 में भारतीय महिला टीम ने भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर कदम रखा और चौथा स्थान हासिल किया।

लेकिन 1976 में जब एस्ट्रोटर्फ यानी कृत्रिम घास पर खेल शुरू हुआ, तो भारत को कठिनाई हुई। नए नियमों और तेज खेल ने भारत को पीछे कर दिया।

धनराज पिल्लै की वापसी ने जगाई उम्मीदें

1989 में मैदान पर उतरे धनराज पिल्लै, जिन्होंने हॉकी में नई जान फूंक दी। 1998 एशियाई खेलों में भारत ने स्वर्ण जीता, लेकिन टीम को स्थिरता नहीं मिल पाई। महिला हॉकी ने भी रफ्तार पकड़ी। 2002 कॉमनवेल्थ गेम्स में महिलाओं ने स्वर्ण जीता, जिससे पूरे देश में महिला हॉकी को नई पहचान मिली।

2008 का झटका और फिर नई शुरुआत

2008 में भारत पहली बार ओलंपिक में क्वालिफाई नहीं कर पाया। यह झटका बड़ा था, लेकिन इसी से सुधार की शुरुआत हुई। संघटनाओं में बदलाव हुआ, खिलाड़ियों को आधुनिक ट्रेनिंग और सुविधाएं मिलने लगीं। 2010 में कॉमनवेल्थ गेम्स में भारत ने रजत जीता। 2012 लंदन ओलंपिक में प्रदर्शन कमजोर रहा, लेकिन आगे की तैयारी मजबूत थी।

नई पीढ़ी का उदय

2016 रियो ओलंपिक में भारतीय महिला टीम ने 36 साल बाद ओलंपिक में जगह बनाई।
रानी रामपाल और मनप्रीत सिंह जैसे खिलाड़ियों ने भारत की हॉकी को फिर जीवित किया।
2021 टोक्यो ओलंपिक में भारतीय पुरुष टीम ने 41 साल बाद कांस्य पदक जीता।
महिलाओं ने भी चौथा स्थान हासिल कर देश को गर्व से भर दिया।

फिर लौटी चमक

2022 कॉमनवेल्थ गेम्स में पुरुषों ने रजत और महिलाओं ने कांस्य जीता।
2023 एशियाई खेलों में पुरुष टीम ने स्वर्ण और महिला टीम ने कांस्य हासिल किया।
2024 पेरिस ओलंपिक में भारत ने लगातार दूसरी बार कांस्य जीता और कप्तान हरमनप्रीत सिंह टूर्नामेंट के टॉप स्कोरर बने।

महिला हॉकी की ताकत बढ़ी

आज भारतीय महिला हॉकी टीम दुनिया की सबसे मजबूत टीमों में गिनी जाती है। गांवों की बेटियां अब हॉकी स्टिक लेकर सपने देख रही हैं और कह रही हैं, “हम भी देश के लिए खेल सकते हैं, जीत सकते हैं।”

100 साल की कहानी जो अब अधूरी नहीं

1855 से 2025 तक की यह यात्रा सिर्फ खेल की नहीं, बल्कि भारत की आत्मा की कहानी है। ध्यानचंद से लेकर हरमनप्रीत तक, बलबीर सिंह से लेकर रानी रामपाल तक, हर नाम उस जुनून का प्रतीक है जिसने दुनिया को बताया कि भारत सिर्फ खेलता नहीं, दिल से खेलता है।

भारत की हॉकी ने सिखाया है-जीत सिर्फ मैदान में नहीं होती, जीत उस लगन में होती है, जो बच्चे की आंखों में चमकती है।

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