
लखनऊ, 6 मार्च 2025:
लखनऊ के रहमानखेड़ा जंगल व आसपास के इलाके के हजारों लोगों में दहशत का पर्याय बने बाघ को पकड़ने में वन विभाग और वन्यजीव विशेषज्ञों की परंपरागत एवं पुरानी हिकमत कारगर नहीं हुई। वह हर घेराबंदी को भेदते हुए जंगल से गांवों के बीच 90 दिन तक घूमता रहा। जरूरत के मुताबिक शिकार भी करता रहा। अंत में वह टेक्नोलॉजी (तकनीक) से हार गया। विशेषज्ञों ने हाई-टेक तकनीक की मदद से पकड़ लिया। बाघ को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) और ट्रैप कैमरों के विश्लेषण के जरिए ट्रैक किया गया और फिर उसे ट्रैंकुलाइज़ कर सुरक्षित रेस्क्यू कर लिया गया।

वन विभाग ने अपनाए ये पारंपरिक तरीके
-सिंगल और डबल चैंबर वाले पिंजरे
-बाघिन (मादा बाघ) की आवाज और मूत्र से आकर्षित करने की कोशिश
-जाल और गहरे गड्ढे
-प्रशिक्षित हथिनियों की मदद से कॉम्बिंग
इन कोशिशों के बावजूद बाघ हर बार बच निकलने में सफल रहा। इस अभियान में प्रतिदिन एक लाख रुपये से अधिक का खर्च हो रहा था। 90 दिनों के ऑपरेशन के दौरान करीब एक करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है।
एआई कैमरों ने कैसे किया बाघ को ट्रैक?
वन विभाग ने जंगल में पांच जगहों पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) और ट्रैप कैमरे लगाए, जो सीधे निगरानी सिस्टम से जुड़े थे। जैसे ही बाघ इन कैमरों के सामने से गुजरता, ये कैमरे एक्टिव हो जाते और उसकी गतिविधियों को रिकॉर्ड कर लेते। एआई आधारित सॉफ्टवेयर से बाघ की दिन-रात की गतिविधियों का विश्लेषण किया गया, जिससे उसके पसंदीदा ठिकानों, आने-जाने के रास्तों और छिपने की जगहों की पहचान करने में मदद मिली।

डॉक्टरों की टीम ने ऐसे किया बाघ को बेहोश
रेस्क्यू टीम में शामिल डॉ. दक्ष और डॉ. नासिर ने बुधवार शाम करीब 6 बजे बाघ को टारगेट पर लेते हुए उसे ट्रैंकुलाइज़ करने के लिए एक डार्ट मारी। डार्ट लगने के बाद बाघ तेजी से भागा और 500 मीटर की दूरी पार कर जंगल में दुगौली की ओर बढ़ा। डॉक्टरों की टीम हाथी पर सवार होकर उसका पीछा करती रही। करीब आधा घंटा बाद डॉक्टरों ने दूसरी डार्ट मारी, जिससे बाघ पूरी तरह बेहोश हो गया। इसके तुरंत बाद, उसे सुरक्षित पिंजरे में डालकर रेस्क्यू कर लिया गया।






