भारत रत्न और संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अपने जीवन में सामाजिक भेदभाव और जातिवाद के विरुद्ध लंबी लड़ाई लड़ी। वे जन्म से हिन्दू थे लेकिन उन्होंने ऐलान किया था कि वे हिन्दू के रूप में मरेंगे नहीं। यही कारण था कि उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म अपनाया। पर एक सवाल वर्षों से चर्चा में रहा है—उन्होंने इस्लाम या ईसाई धर्म क्यों नहीं अपनाया?
डॉ. आंबेडकर का मानना था कि धर्म ऐसा होना चाहिए जो समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे की शिक्षा दे। उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म का गहराई से अध्ययन किया। परंतु उन्हें लगा कि इस्लाम भी एक बंद धार्मिक व्यवस्था है, जिसमें मुसलमान और गैर-मुसलमान के बीच भेदभाव मौजूद है। वे ऐसी किसी भी विचारधारा के खिलाफ थे जो किसी भी इंसान को दूसरे से कमतर माने। यही नहीं, पाकिस्तान बनने के बाद वहाँ अनुसूचित जातियों पर इस्लाम अपनाने के लिए दबाव और हिंसा की खबरें भी उनके निर्णय में निर्णायक साबित हुईं।
बौद्ध धर्म में उन्हें करुणा, समता और प्रज्ञा का दर्शन मिला—जो उनके सामाजिक न्याय के सिद्धांतों से मेल खाता था। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि धर्म इंसान के लिए है, इंसान धर्म के लिए नहीं। उनके अनुसार बौद्ध धर्म ही एकमात्र ऐसा मार्ग था जो दलितों को सम्मान, बराबरी और आत्मगौरव का जीवन दे सकता था।
इस ऐतिहासिक कदम के साथ डॉ. आंबेडकर ने जातिवादी समाज को बड़ा संदेश दिया कि धर्म का उद्देश्य इंसान को ऊपर उठाना होना चाहिए, न कि उसे वर्गों में बांटना।
14 अप्रैल को बाबा साहेब की जयंती के मौके पर देशभर में उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है और उनके विचारों को याद कर सामाजिक समता की दिशा में नए संकल्प लिए जाते हैं।