
अंशुल मौर्य
वाराणसी, 5 अप्रैल 2025:
यूपी में वाराणसी मणिकर्णिका घाट पर चैत्र नवरात्र की सप्तमी की रात परम्परागत महाश्मशान महोत्सव जाग उठा। जलती चिताओं के बीच नगरवधुओं ने बाबा मसाननाथ की पूजा अर्चना कर आरती उतारी और भजन गाये।
मणिकर्णिका घाट पर हुआ कार्यक्रम, भोग लगाकर भजनों से अर्पित की गीतांजलि
मणिकर्णिका घाट पर बाबा मसाननाथ का प्रांगण रजनीगंधा, गुलाब और अन्य सुगंधित फूलों से सजाया गया। बाबा को तंत्रोक्त विधान से पंचमकार का भोग लगाया गया और भव्य आरती की गई। नगरवधुओं ने बाबा को रिझाने के लिए भजन गाए “दुर्गा दुर्गति नाशिनी”, “दिमिग दिमिग डमरू कर बाजे”, “डिम डिम तन दिन दिन” जैसे स्वरों से माहौल गूंज उठा। “ओम नमः शिवाय” और “मणिकर्णिका स्तोत्र” के बाद “खेलें मसाने में होरी” जैसी रचनाएं गूंजीं। ठुमरी और चैती के सुरों के साथ उन्होंने बाबा के चरणों में अपनी गीतांजलि अर्पित की।
इतिहास से जुड़ी हैं खास परम्परा की जड़ें
इस परंपरा की जड़ें इतिहास में गहरे धंसी हैं। महाश्मशान सेवा समिति के अध्यक्ष चंद्रिका प्रसाद गुप्ता उर्फ चैनु साव बताते हैं कि मान्यता है कि अकबर के नवरत्नों में से एक राजा मानसिंह ने काशी में बाबा मसाननाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। उस दौर में राजा एक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करना चाहते थे, लेकिन कोई भी कलाकार श्मशान में प्रदर्शन के लिए तैयार नहीं हुआ। तब काशी की नगरवधुओं ने यह जिम्मा उठाया और अपनी कला से बाबा के दरबार को सजाया। यहीं से यह परंपरा शुरू हुई, जो आज तक कायम है। हर साल चैत्र नवरात्र की सातवीं रात को यह उत्सव काशी की श्मशान भूमि पर जीवंत हो उठता है।
नगर वधु शीला ने कहा- बाबा से मांगते हैं इस जीवन से मुक्ति
नगरवधु शीला कहती हैं, “हम हर साल बाबा के दरबार में नृत्य करते हैं और प्रार्थना करते हैं कि अगले जन्म में हमें इस जीवन से मुक्ति मिले।” उनके घुंघरुओं की हर झंकार एक दुआ है, हर थाप एक उम्मीद। यह महाश्मशान महोत्सव सिर्फ एक आयोजन नहीं, बल्कि काशी की उस अनोखी संस्कृति का प्रतीक है, जहां मृत्यु के बीच जीवन नृत्य करता है और मुक्ति की चाह कभी सोती नहीं।