
नई दिल्ली, 1 मई 2025
केंद्र सरकार ने आखिरकार जातिगत जनगणना की मांग को मंजूरी दे दी है। इस फैसले को विपक्षी दल अपनी बड़ी जीत मान रहे हैं, खासकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने इसे वर्षों से जारी दबाव का परिणाम बताया है। लेकिन जातिगत जनगणना पर देशभर में बहस भी तेज हो गई है—क्योंकि इसके फायदे और नुकसान दोनों पर गहन तर्क दिए जा रहे हैं।
जातिगत जनगणना का सीधा अर्थ है—देश में विभिन्न जातियों की गिनती करना। इसका मुख्य उद्देश्य यह जानना है कि कौन-सी जाति से कितने लोग हैं और उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति क्या है। पिछली बार 1931 में पूर्ण जातिगत जनगणना हुई थी, लेकिन उसमें भी ओबीसी वर्ग के आंकड़े सार्वजनिक नहीं हुए थे। अब जब यह जनगणना दोबारा होने जा रही है, तो मुख्य फोकस ओबीसी वर्ग की संख्या और स्थिति पर होगा।
पक्ष में तर्क देने वालों का मानना है कि इससे पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों की वास्तविक स्थिति का पता चलेगा। इससे शिक्षा, रोजगार और सामाजिक सहायता की योजनाओं को अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकेगा। वहीं, बिहार में 2023 की जनगणना से पता चला कि करीब 84 प्रतिशत आबादी ओबीसी, अति पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जातियों की है—जो नीति निर्धारण में अहम भूमिका निभा सकती है।
विपक्ष में तर्क देने वाले लोग कहते हैं कि इससे जातियों के बीच और अधिक विभाजन होगा और सामाजिक एकता पर प्रभाव पड़ेगा। उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट की आरक्षण सीमा (50%) से अधिक आंकड़े सामने आए तो इसे बढ़ाने का दबाव बनेगा, जिससे सामाजिक असंतुलन पैदा हो सकता है। साथ ही, जातिगत भेदभाव को खत्म करने की बजाय यह अभ्यास जातिवाद को और मजबूत कर सकता है।
यह बहस केवल एक आंकड़ों की गणना नहीं है, बल्कि यह देश की सामाजिक-राजनीतिक दिशा को तय करने वाला कदम बन गया है। इसलिए जातीय जनगणना को लेकर संतुलित दृष्टिकोण जरूरी है।






