लखनऊ, 18 नवंबर 2025 :
आज जिस आज़ाद हवा में हम सांस लेते हैं, उसमें कुछ ऐसे वीरों की आखिरी सांसें दबी हुई हैं, जिन्हें यह देश उनके जीते-जी भूल गया। एक नौजवान, जिसने देश के लिए सब कुछ कुर्बान कर दिया। जिसने जेल की अंधेरी कालकोठरी में भी सिर्फ एक ही ख्वाहिश को दिल से लगाए रखा… कि उसे अपने दोस्त भगत सिंह के साथ शहीद होने का मौका मिलता।
यह कहानी है उस क्रांतिकारी की, जिसकी ज़िंदगी संघर्ष से भरी रही। जिसकी दोस्ती भगत सिंह से इतनी गहरी थी कि मरते दम तक वह अपना अंतिम संस्कार भी उन्हीं की समाधि के पास चाहता था। और आज, उसकी जयंती पर इतिहास फिर वही सवाल पूछता है…
क्या हम उन्हें उतना सम्मान दे पाए, जितने वो हकदार थे? यही दर्द, यही प्रेम और यही अधूरी चमक… बटुकेश्वर दत्त की कहानी को आज भी सबसे अलग बना देती है।
वर्धमान से कानपुर तक की यात्रा
क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवंबर 1910 को वर्धमान में हुआ था। पढ़ाई के लिए जब वे कानपुर आए तो उनकी जिंदगी बदल गई। यहीं उनकी मुलाकात भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे महान क्रांतिकारियों से हुई। दोस्ती इतनी गहरी हुई कि उम्र भर साथ निभाई और आखिरी इच्छा भी इसी दोस्ती से जुड़ी रही।

दोस्ती से जुड़ी एक क्रांतिकारी अंतिम इच्छा
भगत सिंह और दत्त के बीच ऐसा भरोसा था जिसे शब्दों में समझाना मुश्किल है। जब बटुकेश्वर दत्त एम्स दिल्ली में अपने अंतिम दिनों में थे, पंजाब के सीएम उनसे मिलने पहुंचे। दत्त ने कहा कि उनकी एक ही इच्छा है कि उनका अंतिम संस्कार भगत सिंह की समाधि के पास किया जाए। 20 जुलाई 1965 को उनके निधन के बाद पंजाब सरकार ने ठीक उसी तरह उनकी इच्छा पूरी की और हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की समाधि के पास उनका अंतिम संस्कार किया गया।
असेंबली बम कांड में था बड़ा रोल
दत्त वही क्रांतिकारी थे जिन्होंने भगत सिंह के साथ दिल्ली की असेंबली में दो बम फेंके थे। दोनों ने वहीं गिरफ्तार होकर ब्रिटिश सरकार को खुला संदेश दिया कि देश की आजादी के लिए वे सब कुछ कुर्बान करने को तैयार हैं। भगत सिंह को जहां एसपी सांडर्स की हत्या के केस में फांसी मिली, वहीं दत्त को फांसी नहीं मिली क्योंकि उस हत्या में उनका कोई रोल नहीं था। इस बात का दर्द उन्हें जीवन भर रहा कि वे अपने दोस्त की तरह फांसी क्यों नहीं चढ़े।
कालापानी की सजा
असेंबली बम कांड में दत्त को काला पानी की सजा मिली। उन्हें अंडमान भेजा गया। साल 1937 में उन्हें पटना जेल लाया गया और बाद में रिहा कर दिया गया। लेकिन आजादी की लड़ाई जारी रखने पर उन्हें फिर गिरफ्तार किया गया। आजादी मिली तो वे पटना में रहने लगे लेकिन आर्थिक चुनौतियां हमेशा उनके सामने रहीं।
बीमारी में मिला देर से सम्मान
बढ़ती उम्र और बीमारी ने दत्त को परेशान कर दिया। पटना में उनका ठीक इलाज भी नहीं हो पा रहा था। जब पंजाब सरकार ने मदद की पेशकश की, तब जाकर बिहार सरकार हरकत में आई और इलाज शुरू हुआ। हालत बिगड़ने पर उन्हें एम्स दिल्ली लाया गया, जहां पता चला कि उन्हें कैंसर है। भगत सिंह की मां भी एम्स पहुंचीं और दत्त को उसी स्नेह से देखा जैसे अपने बेटे को देखा करती थीं।
आखिरी सफर: वही जगह जहां दोस्त लेटे हैं
20 जुलाई 1965 को बटुकेश्वर दत्त ने दुनिया को अलविदा कह दिया। उनकी पत्नी अंजलि और बेटी भारती उनके साथ थीं। जो सम्मान उन्हें आजादी के बाद लंबे समय तक नहीं मिला, वह अंतिम समय में मिला जब उनकी चिता उसी मिट्टी में सजाई गई जहां उनके प्रिय दोस्त भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु अमर हैं।
इतना बड़ा हीरो इतना अनसुना क्यों?
बटुकेश्वर दत्त की बहादुरी, त्याग और दोस्ती की मिसाल आज भी देश के इतिहास की सबसे भावुक कहानियों में से एक है। लेकिन सच यही है कि उन्हें वह सम्मान कभी नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। यह कहानी सिर्फ एक क्रांतिकारी की नहीं है। यह उस दोस्ती, त्याग और सच्चे देशभक्ति की कहानी है जिसने आजादी के इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया।





