
अमित मिश्रा
महाकुंभ नगर 24 जनवरी 2024
संगम तीरे महाकुंभ की छटा निखर रही है और संगम नगरी साधु संतों से गुलजार हो गई है। यहां पहुंचने वाले साधु संतों की बोलचाल और उनके रहन-सहन में पुराना इतिहास छिपा है। संगम किनारे लगने वाले माघ मेला, कुंभ, अर्धकुम्भ या फिर 12 वर्षों में लगने वाला महाकुंभ हो, संतों के अखाड़ों के पंडालों में भंडारे शुरू हो गए हैं।
यह कम लोगों को पता होगा कि इन भंडारों में भोजन सामग्रियों के लिए प्रयोग होने वाली भाषा का भी अपना इतिहास है और अपनी परंपरा जिसे साधु संत ही जानते हैं। यह आम लोगों के लिए कौतूहल का विषय होगा जब कहा जाए कि संतों के पंडालो में लंका की चटनी और सब्जियों में रामरस व रंगबदल की दाल के स्वाद से श्रद्धालु गण तृप्त हो रहे हैं। यह शब्दावली साधु संतों और अखाड़ों में आम बोलचाल की भाषा है।
साधु संतों की बोलचाल की शब्दावली को समझना सबके बस की बात नहीं
मालूम हो कि यहां पर आने वाले साधु-संतों की भाषाओं और शब्दावली को जानना भी किसी रोचक कहानी से कम नहीं। यहां हर बात रामनाम से ही शुरू होती है। संतो की शब्दावली को उसके साथ रहने वाले संत ही समझ सकते है। कहा जाता है कि अपने जीवन को प्रभु की शरण में सौंपने के बाद उनकी दैनिक दिनचर्या और आम बोलचाल भी अजीब हो जाती है। उनके जीवन के हर कंण में श्रीराम का नाम बस जाता है। यहां तक की उनका खान पान में भी राम के नाम से ही शुरू होती है। संतों की कुछ शब्दावली ऐसी भी है जिसे आप सुनकर चौंक जाएंगे। हमारे दैनिक उपयोगिता की वस्तुओं में भी उनके लिए रामनाम ही होता है। महाकुंभ में संतों के आश्रम – पंडालों में लंका की चटनी और सब्जी में रामरस मिलाकर अन्नक्षेत्र में आने वाले श्रृद्धालुओं को परोसा जा रहा है।

संतों की रसोई को कहा जाता है सीता की रसोई
सन्तो के अखाड़ों की रसोई को सीता की रसोई कहते है। इनके रसोई में रखी हर सामग्री के अजीबो गरीब नाम है। सभी सामग्रियों को अलग अलग नामों से पुकारा जाता है। रसोई में रखे मिर्च को लंका कहते है। सब्जी और दाल में मिश्रण होने वाली हल्दी पाउडर को रंगबदल कहा जाता है। इसी तरह से सब्जियों और दाल में पड़ने वाले नमक को रामरस कहते है। इतना ही नहीं चावल यानि भात को महाभोग, या फिर महाप्रसाद और रोटी को टिकर या रामरति कहते है। यहां भंडारे में भोजन करने वाले को प्रसाद पाना कहते है। जबकि भोजन बनाने वाले को भंडारी कहा जाता है।
सन्तो की असली पहचान रामनाम से होती है
संतों की असली पहचान है रामनाम। जो अखाड़े के सच्चे संत होते है। उन्हें इन नामों की पहचान होती है। जो फर्जी साधू होते है , उन्हें इस रामनाम का ज्ञान नहीं होता है। संतों के मन में राम के सिवाय कुछ नहीं हैं। इसलिए यहां की रसोई में रामनाम होता है। रामनाम से अन्नक्षेत्र में कमी नहीं होती, भंडार बढ़ता रहता है


