लखनऊ, 12 नवंबर 2025 :
हर साल मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भगवान कालभैरव की जयंती बड़े श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाई जाती है। इस साल यह दिन 12 नवंबर, बुधवार को पड़ रहा है। पुराणों के अनुसार, जब ब्रह्मा जी के अहंकार से दुनिया में असंतुलन आया, तब भगवान शिव ने भैरव रूप धारण कर उस अहंकार का नाश किया। तभी से उन्हें कालभैरव कहा जाने लगा और काशी को अपना निवास बनाया। शिवपुराण में लिखा है कि कालभैरव को काशी की रक्षा का जिम्मा मिला और आज भी वे इस पवित्र नगरी के कोतवाल माने जाते हैं।
क्या है काशी के कोतवाल की भूमिका?
काशी में श्रद्धालुओं का मानना है कि बिना कालभैरव की अनुमति के कोई भी व्यक्ति इस नगर में प्रवेश नहीं कर सकता। वे धर्म की मर्यादा की रक्षा करते हैं और अधर्म या अन्याय का दंड स्वयं देते हैं। यही वजह है कि काशी आने वाले हर श्रद्धालु अपनी यात्रा की शुरुआत कालभैरव मंदिर के दर्शन से करते हैं। यह परंपरा केवल धार्मिक नियम नहीं बल्कि आध्यात्मिक शुद्धि का प्रतीक है। इसे मानकर ही मोक्ष की नगरी में प्रवेश से पहले भय, पाप और अहंकार का त्याग किया जाता है।
क्या है कालभैरव पूजा की परंपरा?
काशी में भगवान कालभैरव की पूजा का बड़ा महत्व है। श्रद्धालु सबसे पहले कालभैरव मंदिर जाकर नगर के रक्षक को प्रणाम करते हैं। इसके बाद ही वे विश्वनाथ, अन्नपूर्णा और अन्य देवी-देवताओं के दर्शन करते हैं। ऐसा माना जाता है कि कालभैरव की अनुमति मिलने के बाद ही काशी के अन्य तीर्थों का पुण्य फल पूरी तरह से मिलता है। यही कारण है कि उनकी पूजा काशी यात्रा की पहली और सबसे महत्वपूर्ण सीढ़ी मानी जाती है।
आत्मा की शुद्धि और भयमुक्ति का अवसर
कालभैरव मंदिर भगवान शिव के आठ प्रमुख भैरव रूपों में सबसे खास माना जाता है। यहां की मूर्ति स्वयंभू है और यह दिखाती है कि भैरव देव समय और मृत्यु पर नियंत्रण रखते हैं। भक्तों का मानना है कि सच्चे मन से की गई पूजा से जीवन से भय, पाप और नकारात्मकता खत्म होती है। यह मंदिर सिर्फ पूजा का स्थल नहीं बल्कि भक्ति, निर्भयता और मुक्ति का संगम है। काशी आने वाले श्रद्धालु के लिए कालभैरव जयंती सिर्फ एक पर्व नहीं बल्कि आत्मा की शुद्धि और भयमुक्ति का अवसर है। इस दिन पूरे शहर में भक्ति और उत्साह का माहौल नजर आता है।






