National

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से राष्ट्रपति की पॉकेट वीटो खत्म? विवाद गहराया

नई दिल्ली, 18 अप्रैल 2025

सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 142 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए तीन माह की समय-सीमा तय करने के फैसले ने नया संवैधानिक विवाद खड़ा कर दिया है। इस फैसले से राष्ट्रपति की पॉकेट वीटो की शक्ति प्रभावित होती दिख रही है, जिस पर संविधानविदों और राजनीतिक विश्लेषकों ने गंभीर आपत्ति जताई है। यह निर्णय कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर भी सवाल खड़े करता है।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा अनुच्छेद 142 पर की गई टिप्पणी के बाद यह विवाद और गहरा गया है। संविधान में स्पष्ट रूप से शक्तियों के पृथक्करण की व्यवस्था की गई है ताकि विभिन्न संवैधानिक संस्थाएं संतुलन और सहयोग के साथ काम कर सकें। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में तमिलनाडु के राज्यपाल के खिलाफ राज्य सरकार की याचिका पर जो फैसला दिया, उसमें राष्ट्रपति और राज्यपाल को तीन माह के भीतर विधेयकों पर निर्णय लेने को कहा गया। यह पहली बार है जब राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए कोई समय सीमा निर्धारित की गई है।

संविधानविदों का कहना है कि यह फैसला राष्ट्रपति की पॉकेट वीटो की शक्ति को खत्म करता है। उनका तर्क है कि संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर इस शक्ति को समय-सीमा के बाहर रखा था ताकि राष्ट्रपति विशेष परिस्थितियों में विवेक का प्रयोग कर सके। राष्ट्रपति की शपथ भी इस बात को स्पष्ट करती है कि वह संविधान के संरक्षण के लिए उत्तरदायी है, और पॉकेट वीटो उसी संरक्षण का हिस्सा है। ज्ञानी जैल सिंह द्वारा राजीव गांधी सरकार के समय इंडियन पोस्ट ऑफिस (संशोधन) विधेयक को पॉकेट वीटो के तहत रोका जाना इसका ऐतिहासिक उदाहरण है।

कानूनविदों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न्यायिक समीक्षा की अति सक्रियता है, जो संविधान के मूल ढांचे से मेल नहीं खाता। केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट की 13 सदस्यीय संविधान पीठ ने स्पष्ट किया था कि सुप्रीम कोर्ट संविधान में संशोधन नहीं कर सकता, केवल उसकी व्याख्या कर सकता है। ऐसे में अनुच्छेद 142 के तहत समयसीमा तय करना उसकी सीमा से बाहर है।

सरकार के पास अब इस फैसले को चुनौती देने के दो कानूनी विकल्प हैं। पहला, वह इस पर पुनर्विचार याचिका दाखिल कर सकती है, और यदि वह खारिज हो जाए तो क्यूरेटिव याचिका दाखिल की जा सकती है। इसके अलावा सरकार अध्यादेश लाकर या संसद में विधेयक पारित कर इस फैसले को पलट सकती है।

यह पूरी बहस भारतीय संविधान के शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को केंद्र में रखती है, जिसमें विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को स्वतंत्र लेकिन सहयोगात्मक रूप से कार्य करने के लिए परिभाषित किया गया है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस संतुलन और सीमाओं को लेकर नई बहस की शुरुआत कर चुका है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button