
अंशुल मौर्य
वाराणसी, 12 अगस्त 2025:
यूपी में मिर्जापुर से बलिया तक भाद्रपद की तृतीया तिथि को मनाया जाने वाले कजरी तीज के पर्व के
दौरान विराट दंगल और चौघट्टा की रौनक अब दिखाई नहीं देती। कभी पूर्वांचल में लोक उत्सव का प्रतीक बना रहा ये पर्व अब महज जलेबा खाने की रस्म तक सिमट गया है। फिलहाल काशीवासियों ने जलेबा का रस चखकर रतजगा का खूब आनंद लिया।

कजरी तीज के मौके पर मिर्जापुर से बलिया तक कजरी दंगल का आयोजन जगह जगह होता था। मिर्जापुर के अहरौरा में रामदेव का अखाड़ा, साधु का अखाड़ा, घूरे का अखाड़ा और भद्दो का अखाड़ा जैसे कई मशहूर अखाड़े हुआ करते थे, जिनकी चर्चा आज भी कुछ बुजुर्गों की जुबान पर सुनाई देती है। लेकिन अब इनका नाम लेने वाला कोई बचा नहीं। पुरुषों के बीच इस दौरान तीन खेल खास तौर पर लोकप्रिय थे- कूड़ी (लॉन्ग जंप), कबड्डी और कुश्ती। ये खेल गांवों में उत्साह का माहौल बनाते थे। आज भी वाराणसी के चांदपुर इलाके में कजरी तीज के मौके पर खो-खो और कबड्डी खेलने की रस्म निभाई जाती है, लेकिन इसका दायरा पहले जैसा विशाल नहीं रहा।
साहित्यकार और गीतकार अरविंद मिश्र बताते हैं कि कजरी तीज का असली रंग तब दिखता था, जब गांव की हर गली, हर पुरवा कजरी के सुरों से गूंज उठता था। मिर्जापुर के कुछ हिस्सों को छोड़कर अब चौघट्टा का चलन भी लगभग खत्म हो चुका है। पहले गांव की महिलाएं, चाहे वे किसी भी जाति या वर्ग की हों, एक साथ इकट्ठा होकर कजरी, झूला और चौलर गाती थीं। एक-दूसरे की कमर में हाथ डालकर बनाए गए घेरे में नाच-गान की महफिल रात के गहराने तक चलती थी। मूसलधार बारिश और तेज हवाओं के बीच भी महिलाएं अपनी मस्ती में डूबकर कजरी गाती थीं, जिसका उत्साह आधी रात तक थमने का नाम नहीं लेता था।

फिलहाल काशीवासियों ने कजरी तीज की पूर्व संध्या पर रतजगा का आनंद लिया और रस-रसीले जलेबा का स्वाद चखा। शहर के चौक, बांसफाटक, तेलियाबाग, दारानगर, दशाश्वमेध, लक्सा, महमूरगंज, चेतगंज, खोजवां, सोनारपुरा, सुंदरपुर, अस्सी और लंका जैसे इलाकों में जलेबा की मौसमी दुकानें सजीं। कई दुकानदारों ने बताया कि रतजगा के लिए लोगों ने पहले से ही एडवांस बुकिंग करा रखी थी। सादा जलेबा 300 रुपये प्रति किलो, गुड़ का जलेबा 350 रुपये प्रति किलो, पनीर का जलेबा 400 रुपये और देसी घी का जलेबा 500 रुपये प्रति किलो तक बिका।
विशेश्वरगंज, पांडेयपुर, आशापुर, सारनाथ, कोनिया और राजघाट जैसे इलाकों के मंदिरों के बाहर महिलाओं ने गोल घेरा बनाकर कजरी गीत गाए और परंपरा का निर्वाह किया। हालांकि, यह रस्म भी अब पहले जैसी व्यापक नहीं रही। स्थानीय लोगों का कहना है कि आधुनिक जीवनशैली और तकनीक के बढ़ते प्रभाव ने कजरी तीज के पारंपरिक रंग को फीका कर दिया है।






