देहरादून, 13 जुलाई 2025:
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून एक समय अपनी हरी-भरी घाटियों, मीठी लीची, बासमती चावल और साफ हवा के लिए मशहूर था। शांत पहाड़ी जीवनशैली और सांस्कृतिक गरिमा इसे एक आदर्श शहर बनाती थी लेकिन आज, अंधाधुंध विकास और अव्यवस्थित शहरीकरण ने इसकी पहचान को गहराई से प्रभावित किया है।
डालनवाला, प्रेमनगर और रायपुर जैसे इलाकों में कभी लीची के बाग और बासमती की खेती आम बात थी। अब ये खेत अपार्टमेंट्स और कॉलोनियों में तब्दील हो चुके हैं। जलवायु परिवर्तन और रासायनिक प्रदूषण ने कृषि उत्पादन को प्रभावित किया है, जिससे किसान संकट में हैं।
नदियां बनीं नाले : संकट में रिस्पना-बिंदाल का अस्तित्व
कभी जीवनदायिनी रही देहरादून की नदियां रिस्पना, बिंदाल, सुसवा और टौंस आज प्रदूषण से कराह रही हैं। प्लास्टिक और औद्योगिक कचरे ने इन जलधाराओं को नाले में बदल दिया है। पानी अब पीने और सिंचाई दोनों के लिए अनुपयुक्त हो चुका है। भूजल पुनर्भरण बाधित हुआ है और जल संकट गंभीर रूप ले चुका है।
हवा में जहर : साफ वायु की जगह सांसों में खतरा
एक समय देहरादून की हवा सबसे स्वच्छ मानी जाती थी, लेकिन अब हालात चिंताजनक हैं। एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) लगातार “खराब” और “अत्यंत खराब” की श्रेणी में पहुंच रहा है। वाहनों की बढ़ती संख्या, अवैध निर्माण और पेड़ों की कटाई इसके मुख्य कारण हैं।
योजना विहीन विस्तार बना संकट
तेजी से फैलता शहरीकरण मास्टर प्लान की अनदेखी और अवैध निर्माण की वजह से शहर की मूल संरचना पर भारी पड़ रहा है। ट्रैफिक जाम, जलभराव और सीवर की समस्या आम हो गई है। प्रशासनिक उदासीनता और राजनीतिक हस्तक्षेप ने स्थिति को और बिगाड़ दिया है।
पर्यटन दबाव बना रहा पहाड़ों पर खतरा
देहरादून केवल शहर नहीं, मसूरी, चकराता और धनोल्टी जैसे पर्यटन स्थलों का प्रवेशद्वार है। अनियंत्रित पर्यटन और निर्माण कार्यों से पहाड़ियों की स्थिरता प्रभावित हुई है। भूस्खलन और सड़कें टूटने की घटनाएं बढ़ गई हैं।
सरकारी प्रयास अधूरे, जनभागीदारी की दरकार
रिस्पना-बिंदाल पुनर्जीवन परियोजनाएं, वृक्षारोपण अभियान और पर्यावरणीय कानून लागू करने की कोशिशें हुई हैं, लेकिन आम नागरिकों की भागीदारी के बिना ये प्रयास अधूरे हैं। पर्यावरण बचाने के लिए जनजागरण और सामूहिक संकल्प की जरूरत है।
स्थानीय प्रयास दे रहे उम्मीद की किरण
कुछ संगठनों और युवाओं ने नदियों की सफाई, रेन वाटर हार्वेस्टिंग, शहरी बागवानी और जैविक खेती जैसे सकारात्मक प्रयास किए हैं। शैक्षणिक संस्थान भी पर्यावरण शिक्षा को बढ़ावा दे रहे हैं। ये प्रयास अगर जनांदोलन बनें, तो देहरादून की पहचान फिर से लौट सकती है।
अब नहीं हुए सतर्क तो हो जाएगी देर
देहरादून एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां से या तो इसे बचाया जा सकता है, या यह एक और शहरी बर्बादी की मिसाल बन जाएगा। यह जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं, समाज के हर नागरिक की है। यदि अगली पीढ़ी को हरा-भरा देहरादून सौंपना है, तो अब संगठित होकर ठोस कदम उठाने का समय है।