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सावन की कजरी से फागुन के फगुआ तक: गीतों में बसता भारत का ग्रामीण जीवन

हरेन्द्र दुबे

गोरखपुर,23 जून 2025:

भारत को संस्कारों का देश कहा जाता है और इसकी झलक हर मौसम, हर माह और हर त्यौहार में देखने को मिलती है। यह देश सिर्फ त्योहारों का नहीं, भावनाओं, परंपराओं और लोकजीवन की जीवंत अभिव्यक्ति का देश है, जहां हर महीने की अपनी एक अलग सांस्कृतिक विधा होती है।

सावन की मधुर कजरी

सांस्कृतिक वर्ष का आरंभ फागुन महीने से होता है, जब होली की मस्ती और रंगों के साथ महिलाएं फगुआ और चैता गीतों में अपनी भावनाएं उड़ेलती हैं। इसके बाद शादी-ब्याह के मौसम में गारी गीतों की गूंज सुनाई देती है, जो हर मांगलिक अवसर को विशेष बना देती है। फिर आता है आषाढ़ का महीना, जहां खेतों में धान की रोपाई करते हुए महिलाओं के कंठ से निकलते हैं कजरी और सावन के गीत।

इन गीतों में एक तरफ जहां रोमांच और भावनाएं होती हैं, वहीं दूसरी ओर प्रकृति से जुड़ाव भी दिखता है।

“अरे रामा चढ़े सावन ललकारी,
चुवेला ओरियानी ए रामा

कइसें खेले जइब सावन मां कजारिया,
बदरिया घेरे आई ननदों…”

जैसे गीत खेतों, आंगनों और झूलों में गूंजते हैं।

बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और बंगाल तक, हर राज्य की अपनी बोली, अपने सुर और अपनी परंपरा है। महिलाएं धान रोपते हुए गीत गाती हैं — ये सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि थकान को कम करने का माध्यम भी हैं।

निष्कर्ष

आज भी ग्रामीण भारत में यह परंपरा जीवित है — लोग कहते हैं कि “गीतों से काम आसान लगता है, मन भी जुड़ा रहता है।” इस सांस्कृतिक समृद्धि की सबसे बड़ी खासियत यही है कि यह केवल उत्सव तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे जीवन को उत्सव बना देती है।

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