प्रयागराज, 3 जनवरी 2025:
वर्ष 1942, स्थान उत्तर प्रदेश का पावन प्रयागराज। गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के तट पर कुंभ पर्व की अद्भुत रौनक थी। देशभर से लाखों श्रद्धालु आस्था की डुबकी लगाने पहुंचे थे। इसी दौरान भारत के वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के साथ इस भव्य मेले का अवलोकन करने का निर्णय लिया।
कुंभ क्षेत्र में देश के विभिन्न राज्यों से पहुंचे श्रद्धालु अपने पारंपरिक वेशभूषा में भजन-कीर्तन और त्रिवेणी स्नान कर रहे थे। भव्य आयोजन और अपार जनसमूह को देखकर वायसराय आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने मालवीय जी से उत्सुकता से पूछा, “इस मेले में इतनी भीड़ जुटाने के लिए कितनी राशि प्रचार में खर्च होती होगी?”
मालवीय जी मुस्कुराए। उन्होंने जेब से एक पंचांग निकालते हुए कहा, “दो पैसे…या शायद उससे भी कम।” वायसराय ने विस्मित होकर पूछा, “सिर्फ दो पैसे? यह कैसे संभव है?”
मालवीय जी ने पंचांग दिखाते हुए समझाया, ” यह मात्र दो पैसे का पंचांग हर हिंदू परिवार के घर में होता है। इसी से उन्हें पता चलता है कि किस तिथि पर कुंभ और अन्य पर्व हैं। श्रद्धालु बिना किसी निमंत्रण या सरकारी प्रचार के स्वयं ही इस आस्था के महाकुंभ में खिंचे चले आते हैं।”
उन्होंने आगे कहा, “यह भीड़ नहीं है, यह भगवान के प्रति अटूट निष्ठा और भक्ति का अद्वितीय संगम है। यहां लोग धर्म की शक्ति और अपनी आस्था के वशीभूत होकर आते हैं।”
मालवीय जी के इस स्पष्टीकरण को सुनकर लॉर्ड लिनलिथगो श्रद्धालुओं की इस अद्वितीय आस्था को प्रणाम करते हुए नतमस्तक हो गए। विडंबना यह है कि जिस सनातन संस्कृति और भक्ति की शक्ति के आगे अंग्रेज अधिकारी भी नतमस्तक हुए, आज उसी पर सवाल उठाए जा रहे हैं।