इतिहास . 4 सितंबर
आज कहानी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बार बहादुर सिंह की है . गोरखपुर की राजनीति अभी गोरखनाथ धाम से तय होती है लेकिन एक दौर में यहां बाबा राघवदास (देवरिया) की मजबूत छवि थी. बाबा राघवदास को पूर्वांचल का गांधी कहा जाता था. इसके बाद प्रोफ़ेसर शिब्बन लाल सक्सेना और समाजवादी उग्रसेन (देवरिया) का उभार हुआ.
गोरखपुर यूनिवर्सिटी में पंडित सूरतनारायण मणि त्रिपाठी और महंत दिग्विजय नाथ की राजनीतिक लड़ाई चर्चा में रही. यादवेन्द्र सिंह ने रामायण राय को हराया था और मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह को राम कृष्ण द्विवेदी हराकर गोरखपुर की राजनीति में चमक चुके थे.
तब तक वीर बहादुर बहुत बड़े नेता तो नहीं बने थे लेकिन उनका नाम भी चर्चा में आना शुरू हो गया था. बड़ा दांव उन्होंने खेला 1974 में. विधान परिषद् के चुनाव होने थे. कांग्रेस के हरिशंकर तिवारी मैदान में थे.
कांग्रेसी उन्हें पसंद तो नहीं करते थे पर कोई विरोध भी नहीं कर सकता था. तब वीर बहादुर सिंह ने उनके खिलाफ किसी को चुनाव लड़वाने की ठानी. उन्होंने यादवेंद्र सिंह से संपर्क किया और बस्ती के शिवहर्ष उपाध्याय को हरिशंकर तिवारी के खिलाफ उतारा. शिवहर्ष ने हरिशंकर तिवारी को ग्यारह वोटों से हरा दिया. इसके खिलाफ तिवारी हाई कोर्ट गए. शिवहर्ष का टर्म भी खत्म हो गया लेकिन मुकदमा चलता रहा. हरिशंकर तिवारी और वीर बहादुर के बीच ठन गई और ये दूरी बनी रही. लेकिन ये एक तरह से वीर बहादुर की पहली बड़ी जीत थी.
1980 तक वी पी की सरकार में मंत्री बनने के बावजूद वो कुछ खास नहीं थे. राजीव गांधी की भी पसंद नहीं थे. पर ऐसा कहा जाता था कि अरुण नेहरू से नजदीकियों के चलते उनको मुख्यमंत्री पद के लिए चुना गया था. पर 24 सितंबर 1985 को उनके मुख्यमंत्री बनने के साथ ही कहा जाने लगा कि अब इनके वनवास के दिन नजदीक आ गये हैं. पार्टी के लोग वीर बहादुर को कुछ ख़ास पसंद नहीं करते थे. उन्हें लगता था वीर बहादुर को जबरदस्ती राज्य पर थोपा गया है. वीर बहादुर भले सीधे सादे बने रहते थे लेकिन थे तिकड़मी. जो लोग उनकी आलोचना करते थे उन्हें धीरे-धीरे उन्होंने बाहर निकलवाना शुरू किया. वीर बहादुर कहते थे, ”ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोग राजनीति में जन्म लेते ही विधायक बन जाना चाहते हैं और विधायक बनते ही मंत्री.”
कांग्रेस में उनके आलोचकों में दो लोग थे सुनील शास्त्री और संजय सिंह. इन्हें वीपी सिंह का आदमी माना जाता था. वीपी सिंह की चर्चा करने पर वीर बहादुर भड़क जाते थे. सारी स्थितप्रज्ञता निकल जाती थी. कभी वीपी सिंह की ही सरकार में मंत्री रहने वाले वीर बहादुर उनके बारे में कहते थे, ”कौन वीपी सिंह? एक पब्लिक मीटिंग कर लें अपने दम पर, फिर हम देखेंगे. कोई फॉलोविंग नहीं है उनकी. इतना कमजोर नेता तो इस राज्य में कभी जन्मा ही नहीं है. कांग्रेस के कैंडिडेट से वो किसी भी सीट पर लड़ लें, पता चल जाएगा.” वैसे बता दें कि वीर बहादुर के जाने के एक साल बाद वी पी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने थे.
इससे पहले जब वी पी सिंह ने जब कांग्रेस से बगावत कर केंद्रीय मंत्रिमंडल छोड़ा तो उनके साथ राज्य के सैकड़ों विधायक डिनर पर गये. राज्य के चार मंत्रियों और 18 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया और वी पी की जन मोर्चा जॉइन कर ली.