लखनऊ , 28 अक्टूबर 2024:
“माटी कहे कुम्हार से, तू क्यों रौंदे मोय, एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय…”
कबीर की ये पंक्तियां आज एक नए अर्थ में साकार हो रही हैं। हमारी सभ्यता की धरोहर, मिट्टी के दीयों की परंपरा, चीनी सामान की चकाचौंध में खोती जा रही है।
दीपावली का त्योहार आ रहा है, लेकिन कुम्हारों के घरों में अंधेरा छाया हुआ है।
विकास प्रजापति की आंखों में दर्द है। पिपरिया में अपनी छोटी सी दुकान में बैठे, वह बताते हैं, “दस हजार दीये बनाने पर महज एक हजार रुपये बचते हैं। क्या इतने में परिवार का पेट भरेगा?”
उनकी आवाज में पीड़ा है, वही पीड़ा जो सदियों से माटी को आकार देने वाले इस समुदाय की है।
एक समय था जब दीपावली से महीनों पहले कुम्हारों के घरों में उत्सव जैसा माहौल होता था।
उत्तराखंड के पिथौरागढ़, चंपावत, रानीखेत से लेकर अल्मोड़ा, बागेश्वर तक उनके दीयों की मांग थी। लेकिन आज?
आज चीनी झालरों और एलईडी लाइट्स की चमक ने माटी के दीयों की लौ को मद्धिम कर दिया है। कुम्हार अपने बच्चों को इस विरासत से दूर कर रहे हैं। “यह हुनर अब केवल एक रस्म बनकर रह गया है,” विकास की आंखें नम हो जाती हैं।
दीपावली का अर्थ ही है – दीयों की पंक्ति। लेकिन आज के आधुनिक युग में मिट्टी के दीये केवल पूजा तक सीमित हो गए हैं।

महंगा ईंधन और कम मुनाफा कुम्हारों की कमर तोड़ रहा है,नई पीढ़ी इस परंपरागत व्यवसाय से दूर जा रही है। चीनी उत्पादों का बढ़ता प्रभाव स्वदेशी कला को निगल रहा है
क्या हम सोच सकते हैं कि जो दीये दूसरों के घरों में उजाला करते हैं, उनके बनाने वालों के घर अंधेरे में डूबते जा रहे हैं? क्या हमारी चमक-दमक की चाह में एक पूरी विरासत खो जाएगी?
यह सिर्फ दीयों की कहानी नहीं है। यह भारतीय कला, संस्कृति और परंपरा के संरक्षण का सवाल है। शायद इस दीपावली हमें सोचना चाहिए कि क्या हम अपनी परंपराओं को जीवित रखने में सफल हो पाएंगे? क्या माटी के दीयों की लौ हमेशा के लिए बुझ जाएगी?
कहते हैं, एक दीया हजारों दीयों को जला सकता है। काश, इस बार का दीपोत्सव कुम्हारों के जीवन में भी उजाला ला सके।